जैविक कृषि का कृषकों की आर्थिक स्थिति पर प्रभाव का अध्ययन
(सतना जिले के विशेष संदर्भ में)
डॉ. के.एल. मौर्य1, चाँदनी कुशवाहा2
1प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष (अर्थशास्त्र), शासकीय स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय सतना (म.प्र.)
2शोधार्थी (अर्थशास्त्र), शासकीय स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय सतना (म.प्र.)
*Corresponding Author E-mail:
ABSTRACT:
जैविक खेती कृषि की वह विधा है, जिसमें मृदा को स्वस्थ व जीवन्त रखते हुए केवल जैव अवषिष्ट, जैविक या जीवाणु खाद के प्रयोग से प्रकृति के साथ समन्वय रखकर टिकाऊ फसल का उत्पादन किया जाता है। जैविक खेती (ऑर्गेनिक फार्मिंग) कृषि की वह विधि है जो संश्लेषित उर्वरकों एवं संश्लेषित कीटनाशकों के अप्रयोग या न्यूनतम प्रयोग पर आधारित है, तथा जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बचाये रखने के लिये फसल चक्र, हरी खाद, कम्पोस्ट आदि का प्रयोग करती है। सन् 1990 के बाद से विश्व में जैविक उत्पादों का बाजार आज काफी बढ़ा है। जैविक खेती वह सदाबहार पारंपरिक कृषि पद्धति है, जो भूमि का प्राकृतिक स्वरूप बनाने वाली क्षमता को बढ़ाती है। जैविक खेती किसानों के स्वावलम्बन की अभिनव योजना है। इसका मुख्य उदेश्य किसानों की आय को दोगुना कर जैविक खेती का प्रशिक्षण, प्रोत्साहन, तथा देश में किसानों को स्वावलम्बी बनाना है। जैविक खेती पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान है। संपूर्ण विश्व में बढ़ती हुई जनसंख्या एक गंभीर समस्या है, बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ भोजन की आपूर्ति के लिए मानव द्वारा खाद्य उत्पादन की होड़ में अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए तरह-तरह की रासायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों का उपयोग, प्रकृति के जैविक और अजैविक पदार्थो के बीच आदान-प्रदान के चक्र को (इकोलॉजी सिस्टम) प्रभावित करता है, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति खराब हो जाती है, साथ ही वातावरण प्रदूषित होता है तथा मनुष्य के स्वास्थ्य में गिरावट आती है।
KEYWORDS: जैविक कृषि, कृषक, आर्थिक स्थिति, सतना
INTRODUCTION:
जैविक खेती प्राचीन भारतीय कृषि प्रणाली हैं, और आधुनिक रसायन प्रधान युग में भी प्रासंगिक है सत्तर के दशक से प्रारम्भ हुई रासायनिक खेती को अपनाते हुए बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए कृषि उत्पादन में आशातीत सफलता प्राप्त की गई, कृषि क्षेत्र में अधिक से अधिक उत्पादन लेने के लिए विभिन्न फसलो में ऐसी किस्मो का विकास किया गया जिसमे जिनसे अधिक पैदावार लेने के लिए रासायनिक उर्वरको एवं कीट नियंत्रण के लिए जहरीले रसायनों की भरी आवश्यकता हुई इन रासायनिक उर्वरको एवं जहरीले कीटनाशक औषधियों के अत्याधिक उपयोग से मृदा के भौतिक एवं रसायनिक गुण पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। साथ ही पर्यावरण प्रदुषण की समस्या के साथ जैविक विविधिता को बनाये रखना भी कठिन हो रहा है साथ ही कृषि उत्पादन विशेषकर सब्जियों में जहर की मात्रा मनुष्य की सहनशीलता से अधिक आ रही है जिसका मानव के स्वास्थ्य पर विपरीत असर हो रहा है।
जैविक खेती कृषि की वह प्रणाली है, जो पर्यावरण को स्वच्छ एवं सन्तुलित बनाती है साथ ही मृदा जल एवं वायु को प्रदूषित किये बिना भूमि को स्वच्छ व सक्रिय बनाती है। भारत में सिक्किम को पूर्णत जैविक राज्य घोषित किया गया है तथा सिक्किम राज्य में गंगटोक शहर में राष्ट्रीय जैविक अनुसंधान की स्थापना भारत सरकार द्वारा की गई है। जैविक खेती के प्रोत्साहन हेतु भारत सरकार किसानो को जैविक खेती अनुदान भी प्रदान कर रही है बाजार में जैविक उत्पादों की मांग भी बढ़ रही है इससे किसानो को अच्छा फायदा हो सकता है। भारत सरकार द्वारा 2022 तक किसानो की आय दुगनी करने का लक्ष्य रखा गया है इसमे जैविक खेती का योगदान महत्व पूर्ण हो सकता है ।
इसलिए वर्तमान में जैविक खेती अपनाकर किसान कचरे का बेहतर तरीके से उपयोग करके फसल के लिए अच्छी गुणों वाली खाद, हरी खाद, वनस्पतिक एवं गाँव में उपलब्ध अन्य संसाधनों से जैविक कीटनाशक तैयार करके बीज स्वावलंबन कार्यक्रम अपनाकर स्वयं के लिये बीज उत्पादन कर जल के लिए खेती में कुंडी, कूप नलकूप रिचार्जिंग फसल चक्र अंतरवर्तीय फसल पद्धति इत्यादि ।
जैविक खेती आमतौर पर “वापिस“ प्रकति की ओर अभियान के साथ जुड़ी हुई है जैविक खेती रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशको से दूर रहती है जैविक उत्पादकों की खुदरा बिक्री पैकेट वअमतसपदम 4ब् करना और लेवल लगाना भी जैविक उत्पादकों के प्रचार में महत्वपूर्ण घटक है जैविक उत्पादों के बाजार को एक प्रीमियम बाजार माना जाता है जो मानको के उच्च स्तर को बनाए रखता हैं।
जैविक खेती जो मानव समुदाय परम्परागत कृषि साधनों के माध्यम से अपनी खाद्य अवश्यकताओं की पूर्ति करता रहा है पिछले कुछ वर्षो में कृषि का परम्परागत स्वरुप आधुनिक हो गया बढ़ती जनसँख्या के कारण मानव जीवन और कृषि पर आधारित लोगो का सन्तुलन बिगड़ गया, पेट भरने के लिए परम्परागत खेती रसायन खेती में बदल गयी जिससे रासायनिक के कारण खेतो की मिट्टी के जीवो को नष्ट कर दिया भूमि व वायु प्रदूषित हो गये और जमीन की प्राकृतिक एवं जैविक उर्वरता कमजोर होते होते खत्म हो गयी खाद्य पदार्थों के साथ साथ हम लोग रसायनों को भी खा रहे है ये रसायन - हमारे लिए खतरनाक बीमारियां पैदा करती है, एवं पशु-पक्षी पर भी इनका बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है।
साथ ही हमारे अनमोल प्राकृतिक भूमि, जल, वायु भी प्रदूषित हो रही है फसल की सुरक्षा व्यवस्था भी गड़बड़ा रही है अतः खेती के लिए ऐसे उपायों की जरूरत महसूस की जा रही है जो पर्यावरण को अनकूल बनाये एवं मृदा तथा वायुमंडल में रहने वाले जीवो के प्रति सुरक्षा हो साथ ही कृषकों की बाहरी आदानों पर निर्भरता कम की जा सके एवं कृषकों को स्वावलम्बी बनाने में मदद हो सके द्यकिसानो की आर्थिक स्थिति में सुधार तथा देश का आर्थिक संवृद्धि खुशहाली के लिए भी जैविक खेती अपनाना जरुरी है। विश्व खाद्य संगठन के अनुसार जैविक खेती एक ऐसी अनूठी कृषि-प्रबन्धन की प्रक्रिया है, जो कृषि के वातावरण का स्वास्थ्य, जैव विविधता, जैविक चक्र तथा मिट्टी की जैविक प्रणालियों का संरक्षण व पोषण करते हुए उत्पादन सुनिश्चित करती है। इस प्रक्रिया में किसी भी प्रकार के संष्लेषित तथा रासायनिक आदानों के उपयोग के लिए कोई स्थान नहीं है।
जैविक खेती एवं रासायनिक खेती में अन्तरः
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जैविक खेती के सिद्धान्त
1 प्रकृति की धरोहर है।
2 प्रत्येक जीव के लिए मृदा ही स्रोत है।
3 हमें मृदा को पोषण देना है, न कि पौधे को, जिसे हम उगाना चाहते हैं।
4 ऊर्जा प्राप्त कराने वाली लागत में पूर्ण स्वतन्त्रता।
5 पारिस्थितिकी का पुनरुद्धार।
जैविक खेती का महत्त्व %
1- भूमि की उर्वरा शक्ति में टिकाऊपन।
2 जैविक खेती प्रदूषण से रहित।
3 कम पानी की आवष्यकता।
4 पषुओं का अधिक महत्त्व।
5 फसल-अवषेषों को खपाने की समस्या नहीं।
6 अच्छी गुणवत्ता की पैदावार।
7 कृषि-मित्र जीव सुरक्षित एवं सं्ख्या में बढ़ोतरी।
8 स्वास्थ्य में सुधार।
9 कम लागत।
10 अधिक लाभ।
बीजोपचार %
जैविक खेती में निम्न तरह से बीजोपचार कर सकते हैं %
· 50 से.ग्रे. तापक्रम पर 20-30 मिनट तक गर्म जल-उपचार।
· गोमूत्र अथवा गोमूत्र-दीमक का टीला, मृदा-पेस्ट।
· बीजामृत 50 ग्रा.गाय का गोबर $ 50 मि.ली. गोमूत्र $ 50 मि.ली. गाय का दूध $ 2-3 ग्रा. चूना, एक लीटर पानी में मिलाकर पूरी रात रखते हैं। इससे बीजोपचार करते है।
· हींग ;।ेंविमजपकंद्ध 250 ग्रा./10 कि.ग्रा. बीज की दर से।
· हल्दी पाउडर गोमूत्र में मिलाकर भी बीजोपचार के हेतु प्रयोग किया जा सकता है।
· पंचगव्य सत।
· दषपर्णी सत।
· ट्राईकोडर्मा विरीडी (04 ग्रा./कि.ग्रा बीज) या स्यूडोमोनास फ्लोरेसेन्स (10 ग्रा./1कि.ग्रा. बीज)।
· जैव उर्वरक (राईजोबियम/एजोटोबैक्टर $ पी.एस.बी.)।
विभिन्न प्रकार की सुरक्षित खेती-विधियाँ और उनकी विषेषताएँः
उचित कृषि क्रियाएँ (जी.ए.पी पद्धति) प्राथमिक उत्पादन स्तर पर कीटनाशकों के अवषेषों, पषु-चिकित्सा, एण्टीबायोटिक की दवा के अवषेषों, धातु-अवषेषों, अफ्लाटॉक्सिन-अवषेषों, सूक्ष्मजीव विज्ञानी प्रदूषक जैसे दूषित पदार्थों को खाद्य शृंखला में प्रवेश करने की सम्भावनाओं को समाप्त करके सुरक्षित कृषि उपज और भोजन के उत्पादन में मदद करता है। उचित कृषि-क्रियाएँ ;जी.ए.पी. के तहत निम्नलिखित विधियों का पालन किया जाता है। उचित कृषि-क्रियाओं ;ळ।च्द्ध के तहत निम्नलिखित विधियों का पालन किया जाता है।
· मिट्टी की प्रजनन क्षमता और विविधता को बढ़ाने के लिए उचित फसलों के फसल-चक्र को अपनाना।
· आवरण/कवर फसलों का रोपण।
· टिलेज को कम करना या हटाना।
· एकीकृत कीट प्रबन्धन (आई.पी.एम.) लागू करना।
· पषुधन और फसलों को एकीकृत करना।
· कृषि वानिकी प्रथाओं को अपनाने से।
· जैविक खेती में लागत एवं राजस्व का दायरा
· जैविक खेती में भूमि की तैयारी, बीजों की बुवाई, खरपतवार-नियन्त्रण, फसल बीमारियों की रोकथाम इत्यादि का नियन्त्रण जैव उर्वरकों, मित्र-कीटों एवं सूक्ष्म-जीवाणुओं द्वारा किया जाता है।
· जैविक खेती में उपयोग किए जानेवाले सभी आदान सस्ते एवं आसानी से उपलब्ध होते हैं।
· जैविक खेती से लाभ के रूप में खेत में विषैले पदार्थों का विघटन होता है, मृदा की स्थिति में सुधार होता है फलस्वरूप हमें स्वस्थ एवं गुणवत्तायुक्त फसल प्राप्त होती है, जिसका बाजार मूल्य भी अधिक होता है।
जैविक पद्धति के द्वारा जैविक कीट एवं व्याधि-नियन्त्रण:
जैविक कीट एवं व्याधि-नियन्त्रण इस प्रकार हैं:
1. गोमूत्र: गोमूत्र काँच की षीषी में भरकर धूप में रख सकते हैं। जितना पुराना गोमूत्र होगा, उतना ही अधिक प्रभावषाली होगा। 12-15 मि.मी. गोमूत्र प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रेयर पम्प से फसलों में बुआई के 15 दिन बाद प्रत्येक 10 दिन में छिड़काव करने से फसलों में रोग एवं कीड़ों की प्रतिरोधी क्षमता विकसित होती है, जिससे प्रकोप की सम्भावना कम रहती है।
2. नीम के उत्पाद: नीम भारतीय मूल का पौधा है, जिसे समूल ही वैद्य के रूप में मान्यता प्राप्त है। इससे मनुष्य के लिए उपयोगी औषधियाँ तैयार की जाती हैं तथा इसके उत्पाद फसल-संरक्षण के लिये अत्यन्त उपयोगी हैं।
3. नीम-पत्ती का घोल: नीम की 10-12 किलों पत्तियाँ 200 लीटर पानी में 4 दिन तक भिगोएं। पानी हरा-पीला होने पर इसे छानकर एक एकड़ की फसल पर छिड़काव करने से इल्ली की रोकथाम होती है। इस औषधि की तीव्रता को बढ़ाने के हेतु बेशरण, धतूरा, तम्बाकू आदि के पत्तों को मिलाकर काढ़ा बनाने से औषधि की तीव्रता बढ़ जाती है और यह दवा कई प्रकार के कीड़ों को नष्ट करने में उपयोगी सिद्ध हुई है।
4. नीम की निम्बोली: नीम की निम्बोली 2 किलो लेकर महीन पीस लें, इसमें 2 लीटर ताजा गोमूत्र मिला लें। इसमें 10 किलो छाछ मिलाकर 4 दिन रखें और 200 लीटर पानी मिलाकर खेतों में फसल पर छिड़काव करें।
5. नीम की खली: जमीन में दीमक तथा व्हाइट ग्रब एवं अन्य कीटों की इल्लियाँ तथा प्यूपा को नष्ट करने तथा भूमि-जनित रोग विल्ट आदि की रोकथाम के लिये इसका प्रयोग किया जा सकता है। 6-8 क्ंिवटल प्रति एकड़ की दर से अन्तिम जुताई करते समय कूटकर बारीक करके खेत में मिलावें।
6. आइपोमिया (बेषरम) पत्ती-घोल: बेशरम/आइपोमिया की 10-12 किलो पत्तियाँ, 200 लीटर पानी में 4 दिन तक भिगोएं। पत्तियों का अर्क उतरने पर इसे छानकर एक एकड़ की फसल पर छिड़काव करें। इससे कीटों का नियन्त्रण होता है।
7. मट्ठा: मट्ठा, छाछ, दही आदि नाम से जाना जानेवाला तत्त्व मनुष्य के लिए अनेक प्रकार से गुणकारी है और इसका उपयोग फसलों में कीट-व्याधि के उपचार के लिये लाभप्रद है। मिर्ची, टमाटर आदि जिन फसलों में चुर्रामुर्रा या कुकड़ा रोग आता है, उसकी रोकथाम के हेतु एक मटके में छाछ डालकर उसका मुँह पॉलिथीन से बाँध दें एवं 30-45 दिन तक उसे मिट्टी में गाड़ दें। इसके पष्चात् छिड़काव करने से कीट एवं रोगों से बचाव होता है। 100-150 मि.ली. छाछ 15 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से कीट-व्याधि का नियन्त्रण होता है। यह उपचार सस्ता, सुलभ, लाभकारी होने से कृषकों में लोकप्रिय है।
8. मिर्च/लहसुन: आधा किलो हरी मिर्च, आधा किलो लहसुन पीसकर चटनी बनाकर पानी में घोल बनाएं। इसे छानकर 100 लीटर पानी में घोलकर फसल पर छिड़काव करें। 100 ग्राम साबुन पाउडर भी मिलावें, जिससे पौधों पर घोल चिपक सके। इसके छिड़काव करने से कीटों का नियन्त्रण होता है।
9. लकड़ी की राख: 1 किलो राख में 10 मि.ली. मिट्टी का तेल डालकर पाउडर का छिड़काव 25 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से करने पर एफिड्स एवं पम्पकिन बीटल का नियन्त्रण हो जाता है।
10. ट्राईकोडर्माः ट्राईकोडर्मा एक ऐसा जैविक फफूँदीनाशक है, जो पौधों में मृदा एवं बीजजनित बीमारियों को नियन्त्रित करता है। बीजोपचार में 5-6 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपयोग किया जाता है। मृदा-उपचार में 1 किलोग्राम ट्राईकोडर्मा को 100 किलोग्राम अच्छी सड़ी हुई खाद में मिलाकर अन्तिम बखरनी के समय प्रयोग करें। कटिंग् व जड़ोपचार के लिए 200 ग्राम ट्राईकोडर्मा को 15-20 लीटर पानी में मिलाएं और इस घोल में 10 मिनट तक रोपण करनेवाले पौधों की जड़ों एवं कटिंग को उपचारित करें। 3 ग्राम ट्राईकोडर्मा का 1 लीटर पानी में घोल बनाकर 10-15 दिन के अन्तर पर खड़ी फसल पर 3-4 बार छिड़काव करने से वायुजनित रोगों का नियन्त्रण होता है।
अध्ययन क्षेत्र
चूँकि शोधार्थी का अध्ययन क्षेत्र सतना नगर को लिया गया है। सतना जिला का क्षेत्रफल 7502 वर्ग किमी. है। जनगणना 2011 के अनुसार सतना जिला की जनसंख्या 22ए28ए935 है, जिसमें पुरूष 11ए57ए495 एवं महिला 10ए71ए440 शेष एवं अन्य वृद्ध एवं बच्चे सम्मिलित है। सतना जिले का जनसंख्या वृद्धि 19ण्19ः है, जिले का लिंग अनुपात 1000 पुरूष पर 926 महिला है तथा साक्षरता दर 72ण्26ः है जिसमें पुरूष साक्षरता 81ण्37ः एवं महिला साक्षरता 62ण्45ः है। सतना जिले जनसंख्या घनत्व 297 व्यक्ति प्रति वर्ग कि.मी. है।
शोध के उद्देश्य%&
इस प्रकार की जैविक खेती करने का मुख्य उद्देश्य निम्न लिखित हैं %&
1 रासायनिक उर्वरको कीटनाशको के बजाय कार्बनिक खाद एवं कीटनाशकों का प्रयोग करना।
2 फसल अवशेषों का उचित उपयोग करना।
3. कृषि उत्पादन में चरणबद्ध तरीके से गुणात्मक सुधार करना।
4. जैविक तरीको द्वारा कीट व रोगो का नियंत्रण करना ।
5 फसल चक्र अपनाना।
6. मृदा संरक्षण हेतु उपायों को अपनाना।
7. जैविक खेती करने से भूमि की उपजाऊ क्षमता अधिक हो जाती है जिसके कारण उत्पादन अधिक होने लगता है।
8 जैविक खाद से पौधों को हानिकारक प्रभाव से बचाता है।
9.. जैविक खेती करने से कृषि की पद्धति तथा उसके आसपास के अनुवांशिक कृषि विविधता को बनाए रखता है।
10. गोवर खाद, कम्पोस्ट खाद केचुए खाद व हरी खाद आदि का प्रयोग विभिन्न फसलो की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए किया जा रहा है ।
शोध प्रविधि
सामाजिक शोध की जटिल प्रक्रिया में शोध के उद्देश्यों की प्राप्ति तथा शोध को सही दिशा देने हेतु एक व्यवस्थित अध्ययन पद्धति को चुना जाता है। शोध के उद्देश्य के आधार पर अध्ययन विषय के विभिन्न पक्षों को स्पष्टता से जानने के लिए पहले से ही एक रूपरेखा बना ली जाती है। शोध की विभिन्न अध्ययन पद्धतियों मे विवेचनात्मक, विश्लेषणात्मक, अनुभवमूलक, सर्वेक्षणात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन पद्धतियां प्रमुख हैं। प्रस्तुत शोध प्रबंध के अध्ययन में अपनायी गयी प्रविधि है कि जैविक खेती से संबधित पत्र-पत्रिकाए, शोध-पत्रों, बुलेटिन, आदि का अध्ययन किया जाएगा। हितग्राहियों का चयन कर गांव के लघु, सीमांत कृषकों, भूमिहीन कृषकों से सम्पर्क किया जाएगा। इस शोध कार्य के व्यक्तिगत साक्षात्कार पद्धति से प्राप्त सूचनाओं तथ्यो, जानकारियां समंको के द्वारा विश्लेषण करने के बाद निष्कर्ष प्राप्त किए जाएगंे। तत्पश्चात् तथ्य समंकलन मास्टर चार्ट निर्माण, बिन्दुरेखीय प्रदर्शन, सारणीयन, चित्रों के द्वारा तथ्यों का विश्लेषण एवं सामान्यीकरण किया जावेगा।
शोध परिकल्पनाएँ ¼Research Hypothesis½ %&
प्रस्तुत शोध प्रबंध निम्नलिखित परिकल्पनाओं पर आधारित है &
1- सतना जिले में जैविक खेती करने से किसानो की आर्थिक स्थिति में सुधार हो रहा है।
2. जैविक कृषि के कारण छोटे व गरीब किसानों को लाभ मिल रहा है।
3. सतना जिले में जैविक कृषि करने वाले किसान कई प्रकार की समस्याएं समाप्त हो रही है।
4. सतना जिले में जैविक कृषि करने से भूमि की उर्वरा शक्ति वृद्धि एवं संरक्षित हो रही है
5. जैविक खेती करने के लिए बैंक किसानो को ऋण भी दे रही है।
6. सतना जिले में जैविक खेती के प्रति कृषकों का रुझान दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है ।
7 सतना जिले में जैविक खेती के कारण गाँव की अर्थव्यवस्था में सुधार व सकारात्मक प्रभाव पड़ा है।
जैविक खेती में बहु-फसल
व्यवहार्य फसल पोर्ट फोलियो बनाने के हेतु प्रभावी ढंग से बहु फसल परियोजनाओं को लागू करना। जैविक खेती में मृदा के स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए बहुफसलीय परियोजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू किया जाता है, जैसे दलहन वाली फसलों से नत्रजन का स्थिरीकरण होता है, जो कि अन्य फसलों को भी फायदा पहुँचाता है। फसल-चक्र में मुख्य फसल के साथ एवं ग्रीष्म ऋ़तु में हरी खाद वाली फसलें भी लगायीं जा सकती हैं, जिससे मृदा की भौतिक एवं रासायनिक संरचना में सुधार होता है।
मौसम आधारित फसल-योजना %
जैविक खेती में फसलों पर मौसमी तनाव के कारण फसल-अवधि में फसल कई प्रकार से प्रभावित हो सकती है, जैसे तेज हवा, मूसलाधार वर्षा, अकाल आदि। फसल-चक्र के लिए उपयुक्त फसल का चुनाव उस स्थान की जलवायवीय परिस्थितियों एवं मृदा के प्रकार के आधार पर किया जाता है। उदाहरण के लिए जैसे राजस्थान के हाडोती क्षेत्र में खरीफ मौसम में सोयाबीन/उड़द एवं रबी में गेहूँ/जौ/सरसों लगाए जाते हैं।
वार्षिक योजना, जैविक खेती योजना की तैयारी, फसल कैलेण्डर की तैयारी %
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जैविक खेती के अन्तर्गत मिट्टी के पोषक तत्त्वों का प्रबन्धनः
मृदा-उर्वरता से तात्पर्य उसकी उस क्षमता से है, जो पौधे की वृद्धि और विकास के लिए सभी आवष्यक पोषक तत्त्वों को संतुलित मात्रा व उपलब्ध अवस्था में आपूर्ति कर सके, साथ ही मृदा किसी दुष्प्रभाव या विषैले प्रभाव से पूर्णतया मुक्त हो। मृदा-उर्वरता सामान्यतः मिट्टी के भौतिक, रासायनिक व जैविक गुणों पर निर्भर करती है।
मृदा-परीक्षणः
संतुलित खादों के प्रयोग का आधार मिट्टी का परीक्षण ही है। खादों की उचित मात्रा का उचित समय पर उचित विधि के द्वारा प्रयोग करते हुए अधिकतम उपज प्राप्त की जा सके, यही मिट्टी की जाँच का उद्देश्य है।
मृदा नमूना लेने का सही समयः
प्रत्येक फसल की बुवाई/रोपाई के पूर्व सूखे खेत से मृदा का नमूना लिया जाना चाहिए।
मिट्टी की उपरी सतह में सक्रियण माइक्रोबियल गतिविधि बढ़ाने के विभिन्न तरीके %
· हरी खाद और अतिरिक्त गोबर की खाद (एफ.वाई.एम.) से कार्बनिक पदार्थ में सुधार होगा और मिट्टी में सूक्ष्मजीवों की गतिविधि में वृद्धि होगी।
· मिट्टी में सूक्ष्म जीवाणुओं को मिलाए जैसे पी.एस.बी., पी.एम.बी., जेड.एस.बी., ट्राईकोडर्मा, स्यूडोमोनास, एजेटोबेक्टर, राइजोबियम, मायकोराइजा आदि।
मिट्टी की जाँच के आधार पर भूमि की उर्वरता %
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जीवाणु-खाद के लाभ %
· ये जीवाणु फसलों के पोषक तत्त्वों की जरूरत को पूरा कर उनका उत्पादन व उत्पादकता बढ़ाते हैं।
· ये सूक्ष्म जीवाणु मृदा में मौजूद फास्फोरस को घुलनशील बनाकर पौधों के लिए उपलब्धता बढ़ाते हैं।
· ये सूक्ष्म जीव कुछ मात्रा में सूक्ष्म आवष्यक पोषक तत्त्वों जैसे जिंक, तांबा, सल्फर, लोहा, बोरोन, कोबाल्ट व मोलिब्डेनम इत्यादि पौधांे को प्रदान करते हैं।
· ये सूक्ष्म जीवाणु खेती में बचे हुए कार्बनिक अपषिष्टों को सड़ाकर मृदा में कार्बनिक पदार्थ की उचित मात्रा बनाए रखते हैं।
· ये सूक्ष्म जीवाणु पादप-वृद्धि करने वाले हारमोन्स, प्रोटीन, विटामिन एवं अमीनो अम्ल का उत्पादन करते हैं तथा यह सूक्ष्म जीवाणु मृदा में पनप रही रोगजनक फफूँद नष्ट कर लाभकारी जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि करते हैं।
· इन जीवाणुओं के प्रयोग से लगभग 15-30 प्रतिशत फसलोत्पादन बढ़ता है और उत्पाद की गुणवत्ता बहुत अच्छी रहती है।
· इन सूक्ष्म जीवाणुओं के प्रयोग से मृदा की जलधारण शक्ति व उर्वरा शक्ति बढ़ती है, जिससे फसलोत्पादन बढ़ता है।
· ये जीवाणु-खाद प्रत्येक मौसम में प्रति फसल लगभग 20 से 30 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हैक्टेयर तथा फास्फोरस को घुलनशील बनाने वाले जीवाणु प्रति हैक्टेयर लगभग 30 से 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति फसल उपलब्ध कराते हैं।
मृदा-परीक्षण %
· मिट्टी में उपलब्ध पोषक तत्त्वों के बारे में पता करने के हेतु मिट्टी का परीक्षण किया जाता है।
· भूमि में उपलब्ध पोषक तत्त्वों और लवणों की मात्रा और पी.एच.मान का पता करने के लिए तथा भूमि की भौतिक बनावट जानने के लिए एवं जो फसल हम बोने जा रहे हैं, उसमें खाद की मात्रा निर्धारित करने हेतु किया जाता है।
सिंचाई %
पौधों की वृद्धि के लिए मृदा में आवष्यक नमी के लिए नियमित अन्तराल पर कृत्रिम रूप से पानी देने की प्रक्रिया को सिंचाई कहते हैं।
सिंचाई के उद्ेश्य%
ऽ पौधों की वृद्धि हेतु मृदा में आवष्यक नमी की पूर्ति हेतु।
ऽ फसल को अल्पावधि सूखे से बचाकर उत्पादन सुनिश्चित करने हेतु।
ऽ फसलों को पाले से बचाने हेतु।
ऽ ऊपरी परत को नरम कर उसे कर्षण क्रियाओं के अनुकूल बनाने हेतु।
ऽ मृदा में स्थित लवण के निक्षालन हेतु।
सिंचाई के लिए फसलों की क्रांन्तिक/मुख्य अवस्थाएँ
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चयनित अध्ययन क्षेत्र (04 तहसीलों) के कृषक/उत्तरदाता से प्राप्त समंकों के आधार पर उक्त परिकल्पना परीक्षण करने के उपरांत पाया गया कि ज्ैविक खेती के उपयोग से किसानों की आर्थिक स्थिति, जीवन स्तर में सुधार एवं रोजगार के अवसर में समान रूप से वृद्धि हुई हैं जो निम्न तालिका से स्पष्ट है &
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(नोट: उपरोक्त आंकड़े प्रतिशत में है)
स्त्रोत: स्वयं के सर्वेक्षण द्वारा।
उपरोक्त तालिका से ज्ञात होता है कि सतना जिले की चयनित तहसीलों में सर्वेक्षित कृषक उत्तरदाताओं से प्राप्त समंकों के आधार पर पूर्व वर्षों की तुूलना में 2015-16 की स्थिति में 11 प्रतिशत की आय में वृद्धि हुई है तथा 2015-16 की तुलना में 2019-20 में 17 प्रतिशत की आय में वृद्धि हुई। तथा पूर्व वर्षों की तुूलना में 2015-16 की स्थिति में 15 प्रतिशत की जीवन स्तर में सुधार हुआ है जबकि 2015-16 की तुलना में 2019-20 में 20 प्रतिशत की जीवन स्तर में सुधार आया है और पूर्व वर्षों की तुूलना में 2015-16 की स्थिति में 14 प्रतिशत की रोजगार के अवसरों में वृद्धि हुई है एवं 2015-16 की तुलना में 2019-20 में 18 प्रतिशत मात्र की रोजगार के अवसरों में वृद्धि हुई।
उपसंहार
भारत वर्ष में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि है और कृषकों की मुख्य आय का साधन खेती है। हरित क्रांति के समय से बढ़ती हुई जनसंख्या को देखते हुए एवं आय की दृष्टि से उत्पादन बढ़ाना आवश्यक है अधिक उत्पादन के लिये खेती में अधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरको एवं कीटनाशक का उपयोग करना पड़ता है, जिससे सीमान्य व छोटे कृषक के पास कम जोत में अत्यधिक लागत लग रही है और जल, भूमि, वायु और वातावरण भी प्रदूषित हो रहा है, साथ ही खाद्य पदार्थ भी जहरीले हो रहे है। इसलिए इस प्रकार की उपरोक्त सभी समस्याओं से निपटने के लिये गत वर्षों से निरन्तर टिकाऊ खेती के सिद्धान्त पर खेती करने की सिफारिश की गई, जिसे प्रदेश के कृषि विभाग ने इस विशेष प्रकार की खेती को अपनाने के लिए, बढ़ावा दिया जिसे हम जैविक खेती के नाम से जानते है। भारत सरकार भी इस खेती को अपनाने के लिए प्रचार-प्रसार कर रही है।
म.प्र. में सर्वप्रथम 2001-02 में जैविक खेती का अन्दोलन चलाकर प्रत्येक जिले के प्रत्येक विकास खण्ड के एक गांव मे जैविक खेती प्रारम्भ कि गई और इन गांवों को जैविक गांव का नाम दिया गया। इस प्रकार प्रथम वर्ष में कुल 313 ग्रामों में जैविक खेती की शुरूआत हुई। इसके बाद 2002-03 में द्वितीय वर्ष मे प्रत्येक जिले के प्रत्येक विकासखण्ड के दो-दो गांव, वर्ष 2003-04 में 2-2 गांव अर्थात 1565 ग्रामों मे जैविक खेती की गई। वर्ष 2006-07 में पुनः प्रत्येक विकासखण्ड में 5-5 गांव चयन किये गये। इस प्रकार प्रदेश के 3130 ग्रामों जैविक खेती का कार्यक्रम लिया जा रहा है। मई 2002 में राष्ट्रीय स्तर का कृषि विभाग के तत्वाधान में भोपाल में जैविक खेती पर सेमीनार आयोजित किया गया जिसमें राष्ट्रीय विशेषज्ञों एवं जैविक खेती करने वाले अनुभवी कृषकों द्वारा भाग लिया गया जिसमें जैविक खेती अपनाने हेतु प्रोत्साहित किया गया। प्रदेश के प्रत्येक जिले में जैविक खेती के प्रचार-प्रसार हेतु चलित झांकी, पोस्टर्स, बेनर्स, साहित्य, एकल नाटक, कठपुतली प्रदशन जैविक हाट एवं विशेषज्ञों द्वारा जैविक खेती पर उद्बोधन आदि के माध्यम से प्रचार-प्रसार किया जाकर कृषकों में जन जाग्रति फैलाई जा रही है।
जैविक खेती की विधि रासायनिक खेती की विधि की तुलना में बराबर या अधिक उत्पादन देती है अर्थात जैविक खेती मृदा की उर्वरता एवं कृषकों की उत्पादकता बढ़ाने में पूर्णतः सहायक है। वर्षा आधारित क्षेत्रों में जैविक खेती की विधि और भी अधिक लाभदायक है। जैविक विधि द्वारा खेती करने से उत्पादन की लागत तो कम होती ही है, इसके साथ ही कृषक भाइयों को आय अधिक प्राप्त होती है तथा अंतराष्ट्रीय बाजार की स्पर्धा में जैविक उत्पाद अधिक खरे उतरते हैं। जिसके फलस्वरूप सामान्य उत्पादन की अपेक्षा में कृषक भाई अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं। आधुनिक समय में निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या, पर्यावरण प्रदूषण, भूमि की उर्वरा शक्ति का संरक्षण एवं मानव स्वास्थ्य के लिए जैविक खेती की राह अत्यन्त लाभदायक है। मानव जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए नितान्त आवश्यक है कि प्राकृतिक संसाधन प्रदूषित न हों, शुद्ध वातावरण रहे एवं पौष्टिक आहार मिलता रहे, इसके लिये हमें जैविक खेती की कृषि पद्धतियाँ को अपनाना होगा जो कि हमारे नैसर्गिक संसाधनों एवं मानवीय पर्यावरण को प्रदूषित किये बगैर समस्त जनमानस को खाद्य सामग्री उपलब्ध करा सकेगी तथा हमें खुशहाल जीने की राह दिखा सकेगी।
आज देश भर में कई प्रदेशों में फल व सब्जी की जैविक खेती का भविष्य उज्ज्वल नजर आता है आर्गनिक फूड को लेकर लोगों में काफी जागरूकता बढ़ी है कीटनाशकों एवं रासायनिक खादों का प्रयोग कम होने से किसानो का आर्थिक व्यय कम हो गई है और आमदनी बढ़ गई है। ग्रामीण परिवेश में स्वच्छता एवं स्वास्थ के प्रति जागरुकता के साथ-साथ वातावरण में सुधार हो रहा है। जैविक खेती करने से प्रकृति संतुलन ठीक रहता है और जीव जन्तु के लिए हितकारी रहता है। सतना जिले में जैविक खेती करने से किसानों की आर्थिक स्थिति में परिवर्तन आ आ रहा है जैविक खेती करने से उत्पाद एवं उत्पादकता में वृद्धि हो रही हैं। जैविक खेती करने से कचरे का उचित प्रबंधन होता है एवं खेतो में किसान कचरे का बेहतर तरीके से प्रबंधन कर फसल को उत्तम गुण वाली बनाता हैं।
संदर्भ ग्रन्थ सूची %&
1. बीरेन्द्र बहादुर सिंह जैविक खेती पद्धति प्रबंधन एवं प्रमाणीकरण।
2. राहुल कुमार तिवारी जैविक खेती के नए आयाम एवं प्रमाणीकरण।
3. उधानिकी एवं खाद्य प्रसंस्करण विभाग जैविक खेती उप संचालक उद्यान जिला सतना (म.प्र.)
4. जैविक खेती खुशहाल किसान परियोजना संचालक (आत्मा) किसान कल्याण तथा कृषि विकास जिला रीवा मध्य प्रदेश।
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6. घरेलु कीटनाशक एवं मार्ग दर्शिका डेनिडा परियोजना रतलाम।
7. आर्गेनिक फार्मिंग सिलेक्टेड लेक्चर्स कृषि महाविद्यालय, इंदौर।
8. जैविक खेती समृद्ध कृषक संचालनालय, कृषि (म.प्र.) ।
9. कुमार, प्रमिला एवं श्रीकमल शर्मा 1985 कृषि भूगोल मध्य प्रदेश ग्रन्थ अकादमी भोपाल।
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11. एस एन लाल भारतीय अर्थव्यवस्था में सर्वेक्षण ।
12. दत्त एवं सुन्दरम् व पी. के. गुप्ता कृषि अर्थशास्त्र एवं भारतीय अर्थव्यवस्था ।
13. भारतीय कृषि की आर्थिक समस्याएं महेशचन्द्र।
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Received on 30.01.2023 Modified on 24.02.2023 Accepted on 20.03.2023 © A&V Publication all right reserved Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 2023; 11(1):1-10. DOI: 10.52711/2454-2687.2023.00001 |